उत्तरायणी मेले का शुभारंभ
उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध उत्तरायणी मेला सांस्कृतिक झांकी से शुरू हुआ। वर्ष 2024 की एक सर्द सुबह में सरयू बगड़ में बागनाथ धाम के पास आजादी के दौर का कुली बेगार आंदोलन फिर से जीवंत हो उठा। मकर संक्रान्ति के मौके पर आस्था और संस्कृति का अनूठा मिलाप उत्तरायणी मेले में दिखता है। कुमाॅउ में इस त्योहार को घुघुतियां के नाम से भी जाना जाता है। बच्चों के लिए घुघुतियां खास महत्व रखता है। गले में आटे के शकरपाले, घुघुति, आदि विभिन्न प्रकार के खिलोने माला के रूप में बनाकर पहनते हैं और सुबह सवेरे कव्वे को पकवान खाने का न्योता देते हुए गाते हैं, काले कावा काले घुघुति मावा खाले, तू ल्हीले कावा मास बड़ मैके दी दे सुन घड़। इस गीत को आप पूर कुमाॅउ क्षेत्र में गूंजते हुए सुन सकते हैं। घुघुतिया की पौराणिक मान्यता भी है।
जानकार बताते हैं कि उत्तरायणी मेले की शुरूआत चंद शासकों के समय से हुई थी। तब मकर संक्रान्ति से एक माॅह पूर्व ही मेलार्थी सरयू बगड़ में जुटते थे खूब अलाव की व्यवस्था होती थी और सारी रात हुड़के और रामढोल की थाप में दानपुर और नाकुरी पट्टी की मशहूर चाॅचरी गाई जाती थी। बदलते दौर में चाॅचरी और छपेली मंच से गाये जाने लगी। समय के साथ लोक विधाओं ने भी अपना स्वरूप बदला। उत्तरायणी मेले की रंगारंग झाकियों ने मन मोह लिया। सांसद और विधायक भी कलाकारों के साथ खूब थिरके। बागेश्वर तहसील परिसर से झाकी का शुभारंभ होते ही उत्तरायणी मेले का औपचारिक उदघाटन भी हुआ। तहसील परिसर से नुमाइश मैदान तक झाकी शोभा यात्रा के रूप में निकाली गई। विभिन्न जिलों से आये सांस्कृतिक दलों के साथ विद्यालयों के बच्चों ने सुन्दर प्रस्तुतियां शोभा यात्रा के दौरान दी। साथ में लोक कलाकारों ने भी अपना हुनर दिखाया। कुमाॅउ का प्रसिद्ध छोलिया नृत्य, खेल विभाग की खेल झाकी, शिशु मंदिर का बैण्ड और दानपुर की महिलाओं का झोड़ा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की रैली सब ने शोभा यात्रा को विविधता से सराबोर कर दिया।
मेले की अध्यक्षता कर रही जिलाधिकारी अनुराधा पाॅल ने मेले को सफल बनाने की अपील करते हुए कहा कि 2024 के उत्तरायणी मेले को यादगार बनाने के सभी इंतजाम किये गये हैं। बाहर से आये व्यापारियों को आकर्षक स्टाल लगाने का स्थान हो या फिर सांस्कृतिक दलों की व्यवस्था सभी का ध्यान रखा गया है। इस बार राजनैतिक पंडाल सरयू बगड़ के घाट में लगाये गये हैं। नव निर्मित पुल के नीचे सरयू बगड़ को स्नान आदि के लिए मुक्त रखा गया है। प्राचीन समय में उत्तरायणी मेले में तिब्बत, नेपाल से भी व्यापारी आते थे। बागेश्वर उत्तरायणी मेले में हिमालयन डाॅग खूब बिकते हैं। उत्तराखण्ड में बंदरों से सुरक्षा हो या जंगली जानवरों से सुरक्षा इस कार्य के लिए हिमालयन डाॅग जिसे पहले भोट्टी कुकूर के नाम से भी जाना जाता था मेले का खास आकर्षण होता है। हिमालयन डाॅग अच्छे दामों में बिकते हैं। साथ में मुनस्यारी का राजमा, नेपाल की जैकेट, हिमालयी क्षेत्र के मसाले, जैविक उत्पादों की खूब बिक्रि होती है। नुमाइश मैदान में लगे विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी स्टाॅलों में किसान उत्तम गुणवत्ता की सब्जी, फल और दालें, नमक, हस्तशिल्प की सामग्री प्रदर्शनी में लगाते हैं। दस किलो की गोभी, सात किलों की मूली, दस नीबू वाला गुच्छा प्रदर्शनी में इस बार आकर्षण का केन्द्र बन रहे हैं।
मनोरंजन के लिए सांस्कृतिक दलों की प्रस्तुतियां, पंडाल, बड़े झूले, बच्चों के झूले प्रशासन द्वारा लगवाये जाते हैं। व्यापारी खुश रहते हैं वे दुआ करते हैं कि मेले के दौरान शांती व्यवस्था बनी रहे और मौसम खुला रहे। उत्तरायणी मेले में पारंपरिक वाद्य यंत्रों में हुड़का, बर्तनों में लोहाघाट की कढ़ाई, दही जमाने का ठेका, छास फानने का डकोई, बागेश्वर खरई के तांबे के बर्तन खासा पसंद किये जाते हैं। कुल मिलाकर उत्तरायणी मेले का विशेष महत्व है। धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक महत्व के साथ व्यापारिक महत्व को भी उत्तरायणी मेला प्रस्तुत करता है। मेल मिलाप और सुख शांती का प्रतीक उत्तरायणी मेला आज देश भर में अपनी पहचान बना रहा है।
विपिन जोशी, बागेश्वर
