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14-01-2024
उत्तरायणी मेला उत्तराखंड राज्य के बागेश्वर शहर में आयोजित होता है। सरयू और गोमती नदी के संगम पर बसा जिला बागेश्वर शिव की बागनाथ नगरी के रूप में प्रसिद्ध है। जनपद बागेश्वर में सरयू, गोमती, सुष्प्त भागीरथी नदियों के पावन सगंम पर उत्तरायणी मेले का भव्य आयोजन किया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि इस दिन सगंम में स्नान करने से पुण्य मिलता है और पाप कट जाते हैं. बागेश्वर दो पर्वत शिखरों की उपत्यका में स्थित है इसके एक ओर नीलेश्वर तथा दूसरी ओर भीलेश्वर शिखर विद्यमान हैं. समुद्र तट से लगभग 960 मीटर की ऊचांई पर बागेश्वर स्थित है। उत्तराखंड में मकर संक्राति के अवसर पर कई नदियों के किनारे लगने वाले कौतिक में बागेश्वरका उत्तरायनी मेला बहुत प्रसिद्ध है। बागेश्वर में सरयू और गोमती के संगम के साथ लुप्त सरस्वती नदी का भी मिलन होता है इसलिए बागेश्वर को तीर्थराज प्रयाग के समान माना गया है। सरयू का निर्मल जल सतोगुणी फल देता है तो दूसरी नदी गोमती को तमोगुण की वृद्धि करने वाला माना गया है एवं सरस्वती नदी भौतिक रूप से दिखाई नहीं देती है इसलिये इसे केवल आस्था का स्वरूप माना जाता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार बागेश्वर की स्थापना भगवान शिव के कहने पर उनके गण चंडीस ने दूसरी काशी के रूप में की। स्कंदपुराण के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि यहां तपस्यारत थे. ब्रहमर्षि वशिष्ठ जब देवलोक से विष्णु की मानसपुत्री सरयू को लेकर आये तो मार्कण्डेय ऋषि के तपस्यारत होने के कारण सरयू को प्रवाहित होने से रूकना पड़ा. ऋषि की तपस्या भी भंग ना हो एवं सरयू को भी मार्ग मिल सके इस आशय से माता पार्वती ने गाय और भगवान शिव ने व्याघ्र का रूप धारण किया एवं तपस्या में विलीन ऋषि से सरयू को मार्ग दिलाया। स्कंद पुराण में वर्णित है कि बागेश्वर में शिव स्वयंभू रूप में प्रकट हुए।
धार्मिक और व्यापारिक रूप से विख्यात यह मेला चंद वंशीय राजाओं के समय से काफी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासन काल में ही माघ मेला अर्थात उत्तरायणी मेले की नींव पड़ी। एतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि तब बागेश्वर भूमि से उत्पन्न उपज का एक बड़ा भाग मंदिरों में चढ़ावे के रूप में रखा जाता था। चंद राजाओं ने बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किए एवं तब से मंदिर के पुजारियों की व्यवस्था जारी है. मेले की सांस्कृतिक एवं धार्मिक मान्यता संगम पर नहाने की थी इसे मकर स्नान के नाम से भी जाना जाता था। यह मकर स्नान एक माह तक किया जाता था। जानकर बताते है कि लोकगीतों एवं नृत्य दानपुर और नाकुरी पट्टी की चांचरी आज भी प्रसिद्ध है।
उत्तरायनी मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। संगम में स्नान करते हैं, बागनाथ मंदिर के दर्शन करते है। इस दौरान संगम के आस पास मुंडन और जनेऊ संस्कार, कर्ण भेदन भी होते है। मेले का प्रारम्भ धूम धाम से होता है. तहसील परिसर से सांस्क्रतिक झांकी निकलती है जो कि नुमाइश खेत तक जाती है। जिसमें प्रशासन के लोगों के साथ साथ विद्यालयों के बच्चें सांस्कृतिक दल व शहर के लोग शामिल होते हैं । पूरे कौतिक में भक्तिमय माहौल के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी धूम रहती है। विभिन्न प्रकार की प्रतियोगितायें होती है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लोक कलाकारों की प्रस्तुतियां सबका मन मोह लेती है। अन्य जिलों व राज्यों से विभिन्न सांस्कृतिक दल उत्तरायनी मेले में प्रतिभाग के लिए आते है। उत्तराखण्ड के लोक कलाकारों को खास महत्व दिया जाता है .
संगम पर डुबकी लगाने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु तो आते ही है साथ में व्यापार के लिए व्यापारी कुमाऊं के साथ साथ गढ़वाल, नेपाल, तराई आदि इलाकों से आते हैं। ब्रिटिश लेखक ई. शर्मन ओकले ने अपनी किताब होली हिमालायाज में उत्तरायणी मेले को कुमाऊँ का सबसे बड़ा मेला कहा है. हजारों की संख्या में लोग यहाँ पहुंचते है। पुराने समय में तो तिब्बत ,गढ़वाल,नेपाल से व्यापारी आते थे । मेले में हस्तनिर्मित व जैविक उत्पादों की खूब बिक्री होती है . जैसे विभिन्न प्रकार के काठ के बर्तन, चटाईयां, दरी, कम्बल, पंखियां, पश्मीने, जड़ी बूटियां,मिठाइयां, श्रृंगार का सामान, हिमालयन कुत्ते, भी खूब बिकते हैं. मेले को आकर्षक बनाने के लिए झूले,सर्कस,आदि लगने लगे है। नुमाइशखेत में तरह-तरह के स्टाल लगते हैं जिनमें बीज, कृषि यंत्र, पहाड़ी उत्पाद, प्रमुख होते हैं। प्राचीन समय में जानवरों की खाल भी मेले में प्रमुख रूप से बिकती थी परन्तु जीव संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद खाल आदि बेचने पर प्रतिबंध लग गया। पारम्परिक सामग्रीयों के साथ-साथ आधुनिक चकाचौध ने भी लोगो को आकर्षित किया है.


मेले का अपना ऐतिहासिक महत्व कुछ यूं है । सन 1921 में जब आजादी का आन्दोलन चरम पर था तब बागेश्वर में कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने के लिये बद्री दत्त पाण्डे जी के नेतृत्व में चलाये गये कुली बेगार आन्दोलन में हरगोविन्द पंत जी, विक्टर मोहन जोशी, ईश्वरी लाल साह आदि की सहभागिता के साथ मकर संक्राति के दिन में सरयू बगड़ में कुली बेगार के सरकारी रजिस्ट्ररों को फाड़कर सरयू की अविरल धारा में बहा दिया था. जो कि बागेश्वर के उतरायणी कौतिक के इतिहास का गौरवान्वित पल था . इसआंदोलन की सफलता के बाद बद्री दत्त पाण्डे को कुमाऊँ केसरी की उपाधि मिली थी। आज भी विभिन्न राजनैतिक दलों के पंडाल सरयू बगड़ में लगते हैं. जो हमें कुली बेगार आन्दोलन की याद दिलाते हैं और आजादी के आन्दोलन में शामिल पूर्वजों को याद करने का मौका देते हैं साथ में स्वच्छ और ईमानदार राजनीती के लिए सबको प्रेरित भी करते हैं.
विपिन जोशी, बागेश्वर

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