कत्यूरी राज वंश के अवशेष आज भी यहाँ जीवित हैं
कत्यूरी वंश की राजधानी रहा तैलीहाट गाव
बागेश्वर जनपद मुख्यालय से 19 किमी. की दूरी पर गोमती नदी के किनारे बसा है । कत्यूरी राजवंश की खुशबू और तासीर आज भी बैजनाथ और तैलीहाट में महसूस की जा सकती है। ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में गाँव में कत्यूरों द्वारा स्थापित नीलाचौरी है जिसे कत्यूरों का राजकाज क्षेत्र भी कहते हैं, लक्ष्मीनारायण मंदिर जिसकी प्रतिमा एक अंग्रेज अधिकारी द्वारा चुरा ली गई और गणनाथ में उसे प्रतिमा स्थापित करनी पड़ी, रक्षक देवल, सत्य नारायण मंदिर प्रमुख हैं। साथ में कत्यूरी काल की पेय जल व्यवस्था को दर्शाते 8 नौले आज भी जीवित हैं।
कत्यूरी शासक नरसिंह देव ने 675 ई0 में कार्तिकेयपुर बैजनाथ के पास तैलीहाट गाँव में अपनी राजधानी स्थानांतरित की थी। कत्युरों की प्रथम राजधानी जोशीमठ में थी। द्वितीय राजधानी बैजनाथ तैलीहाट में बनाई गई। कत्यूरों की राजभाषा संस्कृत थी और लोक भाषा पाली थी। नरसिंह देव ने मध्य हिमालयी क्षेत्र ब्रहम्पुर के पतन के बाद वहां से पलायन किया और कुमाऊ में अपना विस्तार बढ़ाया। कत्यूरी वंश में कुल 14 राजा हुए और इनके नौ अभिलेख ऐतिहासिक दस्तावेजों के रूपों में प्राप्त हुए। इस प्रकार 700 ई0 से करीब तीन शताब्दियों तक कत्यूरी राजवंश ने अपना शासन चलाया। कत्यूरी राजवंश के तीन परिवार थे।
1 बसन्तदेव वंश/खर्परदेव वंश
2 निम्बरदेव वंश
3 सलोणादित्य वंश
ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर बागेश्वर से प्राप्त त्रिभुवनराज के अभिलेख से पता चलता है कि प्रथम कत्यूरी राजा का नाम बसन्तदेव था। बसन्तदेव एक शक्तिशाली शासक था इसने महाराजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की थी।बसन्तदेव ने बद्रीनाथ मार्ग पर जोशीमठ में नरसिंह मन्दिर का निर्माण करवाया था। जो आज भी वैश्विक रूप में जाना जाता है और स्थानीय जनता के लिए अपार आस्था का केन्द्र है। कत्यूरी शासकों ने अपने राज्य में भवन निर्माण, मंदिर निर्माण और पेय जल व्यवस्था के उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किये थे। आज भी बैजनाथ और तैलीहाट में कत्यूरी काल के मंदिर समूह और पानी से लबालब भरे 8 नौले मौजूद हैं। बैजनाथ के आसपास गढ़शेर, पुरणा गाँव में भी कत्यूरी शासन काल के अवशेष मिलते हैं। राजा बसन्तदेव ने बागेश्वर के समीप एक मन्दिर को स्वर्णेश्वर नामक गांव दान में दिया था। तब मंदिरों के पुजारियों और मंहतों का जीवन गाँव से प्राप्त अनाज और धन से पलता था। बसन्तदेव शक्तिशाली राजा था उसने स्वतंत्र कार्तिकेयपुर राजवंश की नींव डाली तथा जोशीमठ के पास कार्तिकेयपुर को अपनी राजधानी बनाया . बसन्तदेव के बाद उसका पुत्र शासक बना शिलालेख में इस बात का आंशिक तौर पर जिक्र है।
प्राप्त शिलालेख के अनुसार खर्परदेव के नाम का जिक्र आता है। खर्परदेव को कार्तिकेयपुर राजवंश का शक्तिशाली संस्थापक माना जाता है। खर्परदेव कन्नौज नरेश यशोवर्मन का समकालीन था। कत्यूरी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अंग्रेज इतिहासकार एवंम लेखक एटकिंसन ने किया था। एटकिंसन के अनुसार कत्यूरी राजाओं का मूल निवास स्थान राजस्थान था। कत्यूरी वंश की जानकारी हमें मौखिक रूप में प्रचलित स्थानीय लोकगाथाओं व जागर से भी मिलती है। जैसे – राजुला मालूशाही गाथा से पता चलता है कि कत्यूर 22 भाई थे। अभी तक प्राप्त तथ्यों व जनश्रुतियों से पता चलता है कि कत्यूरियों का शासन कई भागों में विभक्त था। जिसमें आंसतिदेव राजवंश, डोटी के मल्ल तथा अस्कोट के रजवार प्रमुख शाखाएं थी।
आसन्तिदेव वंश – आसंतिदेव ने आसंतिदेव वंश की स्थापना की। आसंतिदेव ने जोशीमठ से राजधानी हटाकर कत्यूर के रणचूलाकोट-वर्तमान में तैनीहाट के पास में स्थापित की। आसंतिदेव ने नाथपंथि संत नारसिंह के कहने पर अपनी राजधानी कत्यूर घाटी के रणचूलाकोट में स्थापित की। उसके पश्चात् कत्यूर में वासंजीराई, गोराराई, सांवलाराई, इलयणदेव, तीलणदेव, प्रीतमदेव, धामदेव और ब्रह्मदेव ने शासन किया। आसन्तिदेव वंश का अन्तिम शासक ब्रह्मदेव था जो अत्यंत अत्याचारी था। कत्यूर से इनके पतन का एक बड़ा कारण ब्रहम्देव के अत्याचार हैं। आज भी जागर गाथाओं में इस बात का जिक्र मिल जाता है। जागर गाथाओं में इसे बीरमदेव भी कहा गया है। कत्यूरी राजवंश का स्वर्णकाल धामदेव के काल को माना जाता है। धामदेव के शासन काल में नगर व्यवस्था, मंदिर शिल्प और पेय जल व्यवस्था का जिक्र मिलता है। बैजनाथ के पास तैलीहाट गाँव में नीलाचौरी नामक स्थान पर कत्यूरी राजवंश के अवशेष मौजूद हैं। एक बड़ा सा मंच है जिसमें बैठकर कत्यूरी राजा अपना दरबार चलाते थे। उसके ठीक सामने एक और मंच है जो राजा के लिए आमोद प्रमोद का स्थान था यहां बैठकर राजा चौसर खेला करता था। पहले इन दोनों मंचो में एक ही पत्थर था जो नीले रंग का था कालान्तर में इसे खंडित कर दिया गया। अब खंडित रूप में नीला पत्थर है।
कत्यूरों के पतन की गाथा – वक्त के अनुसार कत्यूरी शासन काल में कई प्रकार की खामिया आने लगी इसका लाभ उठाते हुए 1191 में अशोकचल्ल ने कत्यूरी राज्य पर आक्रमण कर इसके कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। 1223 में नेपाल के शासक क्राचलदेव ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कत्यूरी राज्य को अपने अधिकार में लिया था। जियारानी की एक लोकगाथा के अनुसार तमूर लंग ने 1398 ई० में हरिद्वार पर आक्रमण किया था और ब्रहमदेव से उसका सामना हुआ। इसी के साथ कत्यूरी राजवंश का अंत हो गया।
कत्यूरी काल के पदाधिकारी
राजात्मय- यह उस काल का सर्वोच्च पद था जो राजा को समय-समय पर अपनी सलाह दिया करता था। महासामन्त- यह सेना का प्रधान होता था। महाकरतृतिका-निरीक्षण संबंधी कार्यों की देखभाल करता था। इसे मुख्य ओवरसियर भी कह सकते हैं। उदाधिला- आधुनिक सुपरिटेन्डेण्ट जैसा पदाधिकारी था।सौदाभंगाधिकृत- यह राज्य का मुख्य इंजीनियर था जो राजकीय निर्माणों की रूपरेखा तैयार करता था। प्रान्तपाल- सीमाओं का प्रहरी जो सीमाओं की सुरक्षा का भार लिये होता था। वर्मपाल- सीमावर्ती क्षेत्रों में आवागमन पर कड़ी नजर रखने वाला पदाधिकारी। घट्पाल- गिरी अथवा पर्वतीय प्रवेशद्वारों की रक्षा के लिए नियुक्त पदाधिकारी। नरपति- नदी के घाटों पर आवागमन को सुगम का बनाने के लिए नियुक्त पदाधिकारी तथा संदिग्ध व्यक्तियों की जांच भी करता था। कत्यूरी काल में गांव को पल्लिका कहा जाता था। ग्राम शासक को महत्तम कहा जाता था। तहसीलदार को कुलचारिक नाम से जाना जाता था।
कत्यूरी सेना का विभाजन
कत्यूरी काल में सेना चार भागों में विभाजित थी।
1 पदातिक, पैदल सेना- इसका मुखिया गौलमिक कहलाता था।
2 अश्वारोही-इसका मुख्या अश्वबलाधिकृत होता था।
3 गजारोही- इसका मुख्या हस्तिबलाधिकृत होता था।
4 ऊष्ट्रारोही-इसका मुख्या ऊष्ट्राबलाधिकृत होता था।
कत्यूरी काल में पुलिस व्यवस्था –
दाण्डिक व खड्गिक दण्ड और खड्.गधारी सिपाही थे जो राज्य तथा जनता की सम्पत्ति की सुरक्षा का ध्यान रखते थे। अपराधियों को पकड़ने वाला सर्वोच्च अधिकारी दोषापराधिक कहलाता था। गुप्तचर विभाग का सर्वोच्च अधिकारी दुःसाध्यसाधनिक था।
कत्यूरी शासन में आय के साधन –
कत्यूरी शासन काल में आय का प्रमुख साधन कृषि, खनिज एवं वन थे। क्षेत्रपाल राज्य में कृषि की उन्नति का ध्यान रखता था। और प्रभातार भूमि की नाप करता था। उपचारिक या पट्टकोष चारिक नामक अधिकारी भूमि के अभिलेख रखता था। खण्डपति व खण्डरक्षा स्थानाधिपति नामक अधिकारी खनिज तथा वनों की रक्षा तथा संबंधित उद्योगों की व्यवस्था करता था।
कत्यूरी शासन काल में कर व्यस्था –
भोगपति व शौल्किक नामक अधिकारियों का काम करों को वसूलना था। भट व चार-प्रचार नामक अधिकारी प्रजा से बेगार लेते थे। आभीर नामक व्यक्ति दुधारू पशुओं से दुग्धादि प्राप्त करने का कार्य करता था। अभिलेखों से मालूम होता है कि राज परिवार की व्यक्तिगत सम्पत्ति में अनेक पशु मुख्यतः गाय, भैंस, घोड़े तथा खच्चर भी होते थे। उनकी देखरेख करने वाला अधिकारी किशोर-बडचा-गो-मजिहष्यधिकृत कहलाता था। कहा जाता है कि कत्यूरी काल के अंतिम शासक ने कर उगाही की हदें पार दी थी। नीला चैरी तैलीहाट नामक स्थान में जहां दरबार लगता था कर उगाही अनाज के रूप में होती थी, राजा अनाज को उल्टी नाली अर्थात मापना का बर्तन से देता था और वापस कर के रूप में सुल्टी नाली से लेता था। इस कारण प्रजा पर कर का बोझ बढ़ता गया। यहीं से राजा के पतन का काल शुरू हुआ।
कत्यूरी स्थापत्य कला –
कत्यूरी शासन काल में स्थापत्य कला अपने चर्मोत्कर्ष में पहुंच चुकी थी। वास्तुकला व मूर्तिकला के क्षेत्र में यह उत्तराखण्ड का स्वर्णकाल था। कत्यूरी काल में मन्दिरों का निर्माण काष्ठ एवं पाषाण दोनों से किया जाता था। मन्दिरों पर नागर शैली का प्रभाव देखने को मिलता है। कत्यूरी काल में मन्दिर दो प्रकार के होते थे – छत्रयुक्त और शिखरयुक्त । छत्रयुक्त मन्दिर के उदाहरण बागनाथ मंदिर बागेश्वर, लाखामण्डल, गोपीनाथ मंदिर गोपश्वर, केदारनाथ, बिनसर, रणीहाट, देवलगढ़, अल्मोड़ा स्थित नन्दा देवी मन्दिर आदि हैं। शिखर युक्त मन्दिर के उदाहरण बैजनाथ, तैलीहाट, जागेश्वर, कटारमल, द्वाराहाट, जोशीमठ, आदिबद्री आदि हैं। द्वाराहाट का गूजरदेव तथा तैलीहाट का सत्यनाराण का मन्दिर अपनी सुन्दरता एवं स्थापत्य की दृष्टि से अनुपम मन्दिर माना जाता है।
कत्यूरी कालीन मन्दिरों की निम्नलिखित विशेषताएं देखने को मिलती हैं नागर शैली का प्रचलन, पाषाण एवं काष्ठ का प्रयोग, छोटै एवं मध्यम आकार के मन्दिर, स्थानीय पाषाणों का उपयोग, शिखर मन्दिरों में द्विस्तम्भ युक्त अर्द्धमण्डप, छत्रशैली के मन्दिरों में आमलका को ढकने के लिए काष्ठ निर्मित छत्र और तत्पश्चात् कलश, परिवार मन्दिर समूह।
राहुल सांस्कृतायन ने कत्यूर घाटी स्थित बैजनाथ मंदिर, तैलीहाट स्थित सत्यनारायण मंदिर व कालीमठ में स्थापित हर-गौरी मन्दिर को देखकर कहा है कि आज सारे भारत में इतनी सुन्दर मूर्ति कहीं भी नहीं है। सत्यनारायण मंदिर बाहर से देखने पर पत्थरों का ढेर लगता है लेकिन आन्तरिक भव्यता दर्शन करने वालों को परम आनंद की अनुभूति प्रदान करती है। छह फीट की विश्णु प्रतिमा शंख चक्र और गदा के साथ अपने भव्य रूप में विराजमान है। लक्ष्मी नारायण का मंदिर विशेष शिल्प के लिए जाना जाता है। यहां दो मंदिर हैं। दोनों की बनावट भिन्न है। यहां लक्ष्मी नारायण की प्रतिमा थी एक बार एक अंग्रेज अधिकारी मूर्ती से इतना प्रभावित हो गया कि वो मूर्ती को अपने साथ ले गया। गणनाथ रेंज के पास अचानक अधिकारी की आंखों की रोशनी चली गई और वह अंधा हो गया। एक साधक ने अधिकारी को सुझाया कि उसे मूर्ती का दोष लगा है शीध्र ही नजदीकी गणनाथ मंदिर में मूर्ती की स्थापना कर पूजा अर्चना करेंगे तो आंखों की रोशनी वापस आयेगी। अंग्रेज अधिकारी ने साधक की बात मान ली। तब से तैलीहाट लक्ष्मीनाराण की मूर्ती गणनाथ मंदिर में जस की तस स्थापित है। सत्यनारायण मंदिर के पास ही खेतों के मध्य सेरे में स्थित है मृत्युंजय का टीला। यहां पर उल्टी दिशा मे शिव लिंग स्थापित है। मान्यता है कि सांसारिक दुखों से मुक्ति के लिए कोई भी मृत्युंजय टीले में प्रार्थना करता तो उसे तुरंत मोक्ष मिलता था। कालान्तर में क्षेत्रवासियों ने टीले में स्थित शिवलिंग की दिशा पलट दी तब से मृतुंजय लिंग की शक्ति समाप्त हो गई।
इस प्रकार देखें तो कत्यूर घाटी का गौरवमयी इतिहास यहां की माटी में घुला-मिला है। आज भी बैजनाथ क्षेत्र में जमीन की खुदाई करने पर मूर्तिया मिल जाती हैं। पानी के स्रोत और नौले भी जमीन के अंदर दफन हैं। एक आदर्श शासनकाल के जीवंत अवशेषों से कत्यूर घाटी विद्यमान है।
विपिन जोशी, मेरा हक़ मेरा देश न्यूज़ 9456593068