चुनाव और ग्रामीण विकास: दावे कितने खोखले कितने सच , विपिन जोशी
पिछले कुछ दिनों से मैं बागेश्वर जिले के दूरस्थ गाॅवों के भ्रमण पर हॅू। विकास यात्रा नाम से एक यूटयूब सीरीज भी बना रहा हॅू। लोगों से बातचीत करके और उनके हालात देखकर मैं आश्चर्यचकित हॅू। विकास के नाम का ढपोर शंख कैसे बजाया जाता है इसका ज्वलंत उदाहरण गरूड़ ब्लाॅक के दाबू और लाहुरघाटी क्षेत्र में दिखा। दाबू गाॅव गरूड़ विकास खण्ड मुख्यालय से 25 किमी. की दूरी पर है। काफी लंबे संघर्ष के बाद दाबू के लिए सड़क योजना स्वीकृत हुई और अब आधे मार्ग तक सड़क रेंगते हुए खोद दी गई है। दाबू मोटर मार्ग में एक पुल भी बना है इस पुल की गुणवत्ता बेहद खराब है। पुल का सुरक्षा दिवार में दरारें दिखने लगी हैं। ग्रामीण निर्माण कार्य से बेहद नाराज हैं। उनका कहना है कि सड़क आधे जंगल में छोड़ दी गई है सड़क का लाभ तो तब होता जब वह गाॅव तक पहॅुचती। बहरहाल गाॅव में समस्याओं का अंबार मौजूद है। पांच किलों राशन योजना से आगे की बात करते हुए ग्रामीणों ने अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि उनके बच्चे आठवीं से आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए गाॅव से 10 किमी. दूर जाते हैं। इस क्षेत्र में एक इण्टरमीडिएट काॅलेज भी नहीं है। अस्पताल तो एक सपना है, मरीज को डोली में रख कर सड़क तक लाते हुए उसकी हालत बेहद नाजुक हो सकती है। इलाज के लिए ग्रामीणों के पास ग्वालदम और गरूड़ की एक मात्र विकल्प बचता है। कभी-कभी अस्पताल पहॅुचने से पहले ही मरीज की मृत्यु तक हो जाती है।
दाबू गाॅव के लोगों ने मूलभूत सुविधाओं के साथ अपने गाॅव के स्कूलों की स्थिति पर भी प्रकाश डाला उन्होने बताया कि दो सरकारी स्कूल गाॅव में हैं लेकिन यहां शिक्षकों की कमी है। शिक्षक अपनी मर्जी से आते जाते हैं, ऐसे में शिक्षा का स्तर कैसे सुधरेगा ? अधिकारी गाॅव तक पहॅुच ही नहीं पाते हैं। चुनाव में बूथ बनता है तो अधिकारियों का आना जाना होता है। गाॅव में नीबू, माल्टा, जामीर का उत्पादन प्रचुर मात्रा में होता है लेकिन मार्केट तक पहॅंचे कैसे ? भयानक गरीबी और कुपोषण के शिकार अधिकांश लोगों के लिए दैनिक मजदूरी एक मात्र आजीविका विकल्प है लेकिन लंबे समय से मनरेगा जैसी योजनाएं भी ठंडे बस्ते में पड़ी हैं। आश्चर्य के साथ बड़े शर्म की बात है कि गाॅव में सीसी मार्ग भी नहीं है किसी जमाने में बना पैदल मार्ग अब खस्ता हाल है। जिला पंचायत और ग्राम पंचायत मद का बजट आखिर जाता कहां है ? एक दो कचरा घर जरूर यहां दिखे जो बजट खपाने के लिए बना दिए गऐ हैं। गरीब जनता के सवाल आज भी जस के तस हैं – वे पूछते हैं क्यों नहीं इस क्षेत्र में एक अस्पताल बनाया गया ? सड़क को अधूरा क्यों छोड़ दिया गया ? मनरेगा जैसी योजनाओं को क्यों बंद किया गया ? फ्री राशन की गुणवत्ता क्यों खराब है ? आसपास के गाॅवों को जोड़ने के लिए अच्छे रास्ते कब बनेंगे ? जंगली जानवरों से खेती और इंसानों की सुरक्षा के लिए सरकार ने क्या किया ? क्षेत्र में मोबाइल फोन नेटवर्क की क्या व्यवस्था है ? रोजगार और मंहगाई जैसे मुद्दों पर बात करने से पहले मूलभूत मुद्दों का बड़ा अंबार यहां दिखा। एससी बाहुल्य क्षेत्रों की याद सरकार को ठीक चुनाव के वक्त क्यों आती है ? यह भी एक बड़ा सवाल है।
अबकी बार गरीब जनता गरीब कल्याण योजना के सरकारी दावों की पोल शायद अपने वोट के जरिये खोल दे लेकिन पेड राजनैतिक ठेकेदार बनाम कार्यकर्ताओं की सब्जबागी घोषणाएं गरीब व वंचित तबके के लोगों को खामोश कर देती है। और गरीब जनता भी पांच किलों राशन को अपना नसीब समझ चुप्पी साध लेती है, अब तो मूलभूत समस्याओ पर बात करना भी एक चुनौती बन गई है। ग्लैमरस प्रचार प्रसार का शोर ही बड़ा मायावी लगता है। अब देखना यह है कि क्या गरीब वंचित जनता सरकार के ग्लैमरस दावों के तिलिस्म से बाहर आयेगी या फिर से चकाचौध में खो जायेगी ?
