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सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर जनता का भरोसा कायम रखा है। माननीय चन्द्रचूढ़ जी की बैंच ने चुनावी चंदे की धांधली से पर्दा उठाया है जो बाकिले तारीफ है। हांलाकी अभी कई पर्दे उठने बाकी हैं। लेकिन वर्तमान तानाशाही के दौर में इतनी राहत भी जनता को भरोसा जरूर दिलाती है वर्ना सरकार ने तो जनता के लिए जानकारी जानने के तमाम रास्ते बंद कर दिये थे। अब खबर आने लगी है केचुआ की साइट से ही पता चल रहा है कि चुनावी चंदे की सर्वाधिक रकम बीजेपी को मिली है। जानकार कह रहे हैं कि सरकारी जाॅच ऐंजेसिंयों को आगे कर सरकार ने अनपी पार्टी की तिजोरी भरी है। इस बात के अभी पुख्ता प्रमाण आने बाकी हैं कि किस कारपोरेट घराने ने या कंपनी ने या सैल कंपनियों ने किस पार्टी को कितना चंदा अपने मुनाफे के लिए दिया था। सुप्रीमकोर्ट ने देश के प्रसिद्ध नामी बैंक एसबीआई को तलब किया है, फटकार लगाई है कि चुनावी चंदे की विस्तृत जानकारी क्यों नहीं दी जा रही है ? आखिर एसबीआई किसके इशारे पर जानकारी छुपा रहा था ?
कयाश लगाने वाली मुख्यधारा मीडिया कहने लगी है कि कंपनियों ने चंदा लोकतंत्र की मजबूती के लिए दिया। या फिर इस बड़ी खबर से ध्यान हटाने के लिए चुनावी मेगा सर्वे होने लगे हैं। मीडिया मैनेजमेण्ट के इस दौर में कहीं हमाम में सब नंगे तो नहीं हैं ? सरकारी ऐजेंसियों के साथ मुख्यधारा मीडिया और कारपोरेट की जुगलबंदी कौन से लोकतंत्र को मजबूत बना रही है ? चुनावी चंदे के गोरख धंधे में एक और मजेदार ट्रेंड दिख रहा है 2019 के बाद जिस भी कारपोरेट कंपनी में ऐंजेसियों के छापे पड़े उनकी ओर से चुनावी चंदे देने की दर तेज हुई है। घाटे में चल रही कंपनियों ने भी भर-भर के चुनावी चंदे का दान किया है। क्या सरकारी जाॅच से बचने के लिए और अपने मुनाफे में और विस्तार करने के लिए ऐसा किया गया ? संदेह तब बढ़ जाता है जब इन्हीं कंपनियों को देश भर में सरकारी ठेके मिलने लगते हैं। निर्माण कार्य, फार्मा कंपनियांे के रूझान यही संकेत देते हैं। सुप्रीम कोर्ट की फटकार का अगला असर एसबीआई में पड़ेगा और बाॅण्ड के यूनिक नम्बर भी केचुआ को साझा किये जायेंगे तब शायद चुनावी चंदे का गोरखधंधा और स्पष्ट हो पायेगा।
अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार बीजेपी को 6,601 करोड़ 47.46ः , अकाली दल को 7 करोड़ 0.06ः ए टीएमसी 1,609 करोड़ 12.60ः कांग्रेस 1,422 करोड़ 11.14ः बीएसआर 1,215 करोड़ 8.51ःए बीजेडी 776 करोड़ 6.07:ए डीएमके 639 करोड़ 5ःए ल्ैत्ब् 337 करोड़ 2.64ः टीडीपी 219 करोड़ 1.71: सूची लंबी है लेकिन देखने वाली बात यह है कि इस सूची में सबसे अधिक चंदा बीजेपी को मिला है ये चंदा कंपनियों ने अपनी मर्जी से दिया है या सरकार ने वसूली की है यह आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि न खाउंगा न खाने दूंगा का नारा भी जुमला ही था। पारदर्शिता की बात और जीवन मूल्यों की बात चुनावी रैलियों तक सिमट गई है। जनता को धार्मिक उन्माद और लाभार्थी जाल में उलझा कर राजनैतिक पार्टियों ने अपना उल्लू सीधा किया है और ये कोई नई बात नहीं है लेकिन खुद फसीहत और दूसरों को नसीहत कहावत को चरितार्थ होते देखने का यह तथाकथित अमृतजाल भी तो कई तरह के रहस्यों से भरा है। अभी तो प्रारंभ है इस रहस्य का अंत कितना प्रचंड होगा यह तो वक्त की गर्त में छुपा सवाल है।

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