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बागेश्वर जनपद के गरूड़ विकासखण्ड का सुन्दर रमणीक गाॅव है लोहारचैरा। समंुद्र तल से 1750 मीटर की उचाई पर बसा यह गाॅव फल पट्टी के नाम से जाना जाता है। बड़ा नीबू, माल्टा, सन्तरा, जामीर का यहां प्रचुर मात्रा में उत्पादन होता है। साथ में गहत, भट, मंडुवा, गडेरी, अखरोट आदि के लिए भी यह क्षेत्र जाना जाता है। विकासखण्ड मुख्यालय से करीब 12 किमी. की दूरी पर लोहारचैरा स्थित है। विलेज टूरिज्म की अपार संभावनाएं यहां दिखती है कुछ व्यापारियों ने अपने होम स्टे भी यहां बनाये हैं। कीवी उत्पादन के लिए भी लौहारचैरा क्षेत्र की नई पहचान बन रही है। उत्तराखण्ड में स्वरोजगार की अपार संभावनाएं तो मौजूद हैं पर स्वरोजगार संबंधी योजनाएं ठीक से जनता तक नहीं पहॅुच पाती हैं। इसका खामियाजा जनता भुगत रही है। फल उत्पादन में लगे किसान नारायण पुरी ने जानकारी देते हुए बताया कि प्रचुर मात्रा में फल उत्पादन करने के बाद भी वे परेशान रहते हैं। बंदरों का आतंक भी हैं। किसी तरह बंदरो से फलों को बचा भी लो तो फलों की कीमत नहीं मिल पाती है। विकासखण्ड स्तर पर फल संरक्षण की कोई यूनिट भी नहीं है एक कोल्ड स्टोर तक नहीं है। किसान फलों को बेचे भी कहां। इसलिए औने-पौने दामों में फल बिकते हैं और किसान को उसकी मेहनत की कीमत नहीं मिलती है। यह एक बड़ी समस्या है जो अब बढ़ गई है। एक और किसान जीत सिंह ने बताया कि सरकारी योजनाओं की जानकारी उन तक कोई नहीं पहुॅचाता है लाभ लेने वाले चुपके से अपना फायदा कर लेते हैं लेकिन जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी होती है कि ग्रामिणों तक जानकारियां पहॅुचे। हताश निराश किसान एक ही लाइन बोलते हैं वे कहते हैं हमारी सुनता कौन है ? दूसरी ओर सरकार ने पलायन आयोग भी खोला है। लेकिन पहाड़ में छोटे और मझोले उद्योगों को लेकर कोई स्पष्ट नीति सरकार के ऐजेण्डे में दिखती नहीं है। सिर्फ किसान निधि बाटने से पहाड़ के किसानों का भला नहीं होगा उनको तात्कालिक रूप से राहत देने के लिए कुछ फौरी कदम तो उठाने हांेगे। लेकिन वर्तमान में ऐसी कोई पहल सरकार की ओर से होती हुई दिखती नहीं है। सरकारी बजट से गाॅव नगर कस्बों में सांस्कृतिक महोत्सवों का जोर है जो सांस्कृतिक जागरूकता के लिए तो ठीक है लेकिन इन महोत्सवों से आम किसान को या आम जन को आर्थिक रूप से क्या लाभ होगा ? सरकार को तात्कालिक रूप से कुछ कदम उठाने चाहिए। लोहारचैरा क्षेत्र के किसानों ने बातचीत के दौरान अपनी समस्याओं को निम्नवत रूप में रखा।

फलों की खेती हो या दाल अथवा सब्जी, जंगली जानवरों जैसे – सुवंर, बंदर का आतंक है। इनसे खेेती को सबसे ज्यादा नुकसान है। सरकार को चाहिए कि बंदरों की नसबंदी कराई जाए उनके लिए बंदरवाड़े बनाए जाए। बंदर पकड़ने के लिए गौव के बेरोजगार युवाओं को काम दिया जा सकता है। अभी तो विभाग एक स्थान से बंदरो को पकड़ कर दूसरे इलाके में छोड़ रहा है इससे बंदर हर क्षेत्र में फैलते जा रहे हैं। फलों का क्या करें ? मार्केट है नहीं बड़े स्तर पर कोई यूनिट भी नहीं है जहां फलों से जूस, अचार या अन्य खाद्य पदार्थ बनाया जा सके। लंबे समय तक फलों को सुरक्षित रखने के लिए कोल्ड स्टोर की व्यवस्था की जानी चाहिए। इस दिशा में कौन सोचेगा ? विकास के नाम पर सिर्फ बांध और सड़क बनाने के साथ नीतिनियंताओं को पहाड़ में स्वरोजगार और सूक्ष्म एवम मझोले उद्योगों के विस्तार पर भी सोचना चाहिए। वर्ना पहाड़ में बेराजगारी और जंगली जानवरों की समस्या पहाड़ की तरह और विशाल रूप लेगी। परन्तु रचनात्मक विकास और इकोफ्रेन्डली विकास की दृष्टि सरकार के ऐजेण्डे से गायब दिखती है। इसलिए किसान हैरान परेशान है, उपजाउ भूमि बंजर पड़ गई है, गाॅव सूने हो रहे हैं, बेरोजगारी के चलते पलायन चरम पर है, शहरों में जनसंख्या घनत्व और अपराध बड़ रहा है। स्थानीय स्तर पर खेती-किसानी को समृद्ध करने के लिए रोजगार विकसित करने के लिए ठोस सार्थक नीति बनाने की आवश्यकता है तब पहाड़ का जन मानस और किसान समृद्धि की दिशा में अग्रसर होगा।
विपिन जोशी/मेरा हक मेरा देश न्यूज
बागेश्वर, उत्तराखण्ड

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